सांग में अनेक बदलाव भी दीपचंद युग में आए मंच के उपकरणों में भी कई परिवर्तन हुए पहले सांगी खड़े -खड़े काम करते थे लेकिन अब मूढा व् चोंकी लेकर बठने लगे नायक मूढे पर बैठता जबकि बाकि कलाकार निचे बैठते स्त्री का अभिनय आदमी स्त्री वेश में करता साजो में एकतारे का स्थान सारंगी ने ले लिया तथा नगाडे का भी प्रयोग होने लगा दीपचंद युग में सांग अपने चरमोत्कर्ष पर था लेकिन अगर हम इस कला के एक सांगी का जीकर न करे तो यह सांग की गाथा अधूरी मानी जायगी ये थे प्रसिद्ध सांगी प० लखमी चंद जिन्होंने सांग को एक नई दिशा प्रदान की जिनके बनाये आज भी सर्वाधिक प्रचलित है प० लखमी चन्द 'मान सिंह 'बसोदी वाले से बहुत प्रभावित थे जो भजन गाते थे और अंधे थे प० लखमी चंद मान सिंह को ही अपना गुरु मानते थे इसी लिए उनके बनाये सांगो में भी गुरु भक्ति झलकती है वे सांग के आरम्भ में कहते है ...
'मन्य सुमर लिए जगदीश
मानसिंह सतगुरु मिले
गहूँ चरण नवा शीश
प० लखमी चंद ने सांग को एक नया रूप प्रदान किया वे अदभुत कला के प्रतिभा संपन सांगी थे उनके सांगो में प्रेम और श्रंगार का योग देखने को मिलता है
नोटंकी सांग में ............
"म आया था आडे ठरण खातर,
मानस मारनी बेरण खातर ,
नोटंकी के पहरण खातर हार बना बडे जोर का "
Sunday, March 29, 2009
Wednesday, March 11, 2009
हरियाणा का लोक नाट्य सांग (२)
सन १८८४-८५ में सर आर .सी .टेम्पल की "दी लीजेंड्स आफ पंजाब "नामक किताब में बंशीलाल द्वारा किए जा रहे सांग का प्रसंग आया है यह सांग गोपी चन्द के किस्से पर
अम्बाला जिले में हो रहा था
'करपा करो जगदीश ,मात मेरी कंठ में बासा
छन्द ज्ञान शुरू करो आनके देख लोग तमाशा
गोपी चन्द का सांग कहना की दिल को लगरी आशा
कहते बंशीलाल मात मेरी पूर्ण कीजे आशा
हरियाणवी लोक साहित्य के प्रमुख विद्वान "डॉ० शंकर लाल यादव "ने अपने लेख 'हरियाणा
की नाट्य परम्परा 'में सांग बारे में लिखा "आधुनिक हरियाणवी सांग का इतिहास खोजते समय
प० दीपचंद ऐसे कलाकार मिलते है जिन्हें सांग का युग प्रवर्तक खा जा सकता है लेकिन सांग
का चलन इनसे बहुत पहले से ही था पुराने समय में भाट जाती के लोग पीढी दर पीढी गायन
में पारंगत थे गावं के बसने या उजड़ने का सारा ब्यौरा वह अपनी गायन शेली में सुनाते थे
यह भी कहा जा सकता है की भजन मंडलियों से ही सांग का स्वरूप निकला है क्योंकि प ० दीपचंद से पहले रामलाल खटिक और प ० नेतराम प्रसिद्ध साँगी थे परन्तु दोनों आरम्भ में भजनी थे सांग के शुरूआती दोर में एकतारा, ढोलक और खड़ताल ही वाद्य यंत्रो के तोर पर प्रयोग होते थे
अम्बाला जिले में हो रहा था
'करपा करो जगदीश ,मात मेरी कंठ में बासा
छन्द ज्ञान शुरू करो आनके देख लोग तमाशा
गोपी चन्द का सांग कहना की दिल को लगरी आशा
कहते बंशीलाल मात मेरी पूर्ण कीजे आशा
हरियाणवी लोक साहित्य के प्रमुख विद्वान "डॉ० शंकर लाल यादव "ने अपने लेख 'हरियाणा
की नाट्य परम्परा 'में सांग बारे में लिखा "आधुनिक हरियाणवी सांग का इतिहास खोजते समय
प० दीपचंद ऐसे कलाकार मिलते है जिन्हें सांग का युग प्रवर्तक खा जा सकता है लेकिन सांग
का चलन इनसे बहुत पहले से ही था पुराने समय में भाट जाती के लोग पीढी दर पीढी गायन
में पारंगत थे गावं के बसने या उजड़ने का सारा ब्यौरा वह अपनी गायन शेली में सुनाते थे
यह भी कहा जा सकता है की भजन मंडलियों से ही सांग का स्वरूप निकला है क्योंकि प ० दीपचंद से पहले रामलाल खटिक और प ० नेतराम प्रसिद्ध साँगी थे परन्तु दोनों आरम्भ में भजनी थे सांग के शुरूआती दोर में एकतारा, ढोलक और खड़ताल ही वाद्य यंत्रो के तोर पर प्रयोग होते थे
हरियाणा का लोक नाट्य सांग(फोक ऑपेरा )
हरियाणा की लोक नाट्य कला के बारे में विचार करते ही हमारा ध्यान सांग पर चला जाता है इस नाट्य कला का इतिहास बहुत जिज्ञासा मूलक है हरियाणा या इसके आसपास के इलाको में सांग की शुरुआत कब हुई इस बारे में कहना मुश्किल है ,परन्तु इतना कहा जा सकता है कि देवताओं में इंदर कि सभा में भी स्वांग (सांग) खेला जाता
था हरियाणा में सांग प्राचीन कल से ही प्रचलित है " नाट्य शास्त्र " ही पंचम वेद कहलाया है
हरियाणा में सम्राट हर्श्वदन के समय लोक नाट्य कला अपने चरम पर था उनके
दरबार में नाटक मण्डली थी १६वि ० शती में हरियाणा में रास लीला और रामलीला
का प्रचार -प्रसार था कुछ समय बाद सांग में अन्य किस्से भी शामिल होने लगे
था हरियाणा में सांग प्राचीन कल से ही प्रचलित है " नाट्य शास्त्र " ही पंचम वेद कहलाया है
हरियाणा में सम्राट हर्श्वदन के समय लोक नाट्य कला अपने चरम पर था उनके
दरबार में नाटक मण्डली थी १६वि ० शती में हरियाणा में रास लीला और रामलीला
का प्रचार -प्रसार था कुछ समय बाद सांग में अन्य किस्से भी शामिल होने लगे
Tuesday, March 10, 2009
होली का आया त्यौहार
होली और फाग हरियाणा के मस्ती वाले त्यौहार है फाग वाले दिन हर किसी में मस्ती और आन्नद की लहरिया उठती है .................
" काच्ची इमली गदराई सामण मै
बूढी लुगाई मस्ताई सामण मै
--------------------
जब साजन ऐ परदेश गए ,मस्ताना फागण क्यू आया
जब सारा फागण बीत गया ,त गर मै साजन क्यू आया
छम छम नाचे सब नरनारी , मै क्यू बेठी दुखा की मारी
मेरे मन मै जब मचा अंधेर ,ते चाँद का चाँदन क्यू आया
इब पिया आया ,जी खिलया ना ,जब जी आया पिया मिला ना
साजन बिन जोबन क्यू आया ,जोबन बिन साजन क्यू आया
मन ते अर्थी बंधी पड्यइ स ,आख्या मै लगी हाय झडी स
जब मेरे मन का फल सुख्याँ, लज्मराया फागन क्यू आया
(हरियाणा का फाग का लोक गीत )
" काच्ची इमली गदराई सामण मै
बूढी लुगाई मस्ताई सामण मै
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जब साजन ऐ परदेश गए ,मस्ताना फागण क्यू आया
जब सारा फागण बीत गया ,त गर मै साजन क्यू आया
छम छम नाचे सब नरनारी , मै क्यू बेठी दुखा की मारी
मेरे मन मै जब मचा अंधेर ,ते चाँद का चाँदन क्यू आया
इब पिया आया ,जी खिलया ना ,जब जी आया पिया मिला ना
साजन बिन जोबन क्यू आया ,जोबन बिन साजन क्यू आया
मन ते अर्थी बंधी पड्यइ स ,आख्या मै लगी हाय झडी स
जब मेरे मन का फल सुख्याँ, लज्मराया फागन क्यू आया
(हरियाणा का फाग का लोक गीत )
हरियाणा का सूफी एवं उर्दू साहित्य .....(भाग ६ )
हरियाणा के सूफी साहित्यकारों में शेख सरफुदीन 'पानीपती 'का अपना एक अलग स्थान
है यह हजरत शेख बू अली कलंदर के लकब से प्रसिद्ध थे शेख जी के पूर्वज फारस से आकर पानीपत में बसे थे इनके घराने की भाषा फारसी थी शेख जी फारसी के साथ -साथ हिन्दी में भी कविताये करते थे अहेख जी सूफी विचारधारा की चिस्ती परम्परा के
कलंदरी शाखा के मुखिया थे इनके अनेक दोहे प्रसिद्ध है दिल्ली के बाह्द्शा गयाशुदीन तुग़लक को इन पर बहुत श्रधा थी
.............
सजन सकोरे जायंगे नेन मरेंगे रोई
विधना ऐसी रेन कर भोर कबहूँ न होई
..........................
मन शुनिदम यारे मन फर्दा खद राहे शताब
या इलाही ता कयामत बा न्यायद आफ़ताब
........................
एक प्रसिद्ध दोहा .........
पो फटतहीं सखी सुनत हो पिय परदेसही गोन
पिय मै हिय मै होड़ है पहले फटी है कोन
शेख सरफुदीन जी का जन्म १२६३ vi० को बताया है
है यह हजरत शेख बू अली कलंदर के लकब से प्रसिद्ध थे शेख जी के पूर्वज फारस से आकर पानीपत में बसे थे इनके घराने की भाषा फारसी थी शेख जी फारसी के साथ -साथ हिन्दी में भी कविताये करते थे अहेख जी सूफी विचारधारा की चिस्ती परम्परा के
कलंदरी शाखा के मुखिया थे इनके अनेक दोहे प्रसिद्ध है दिल्ली के बाह्द्शा गयाशुदीन तुग़लक को इन पर बहुत श्रधा थी
.............
सजन सकोरे जायंगे नेन मरेंगे रोई
विधना ऐसी रेन कर भोर कबहूँ न होई
..........................
मन शुनिदम यारे मन फर्दा खद राहे शताब
या इलाही ता कयामत बा न्यायद आफ़ताब
........................
एक प्रसिद्ध दोहा .........
पो फटतहीं सखी सुनत हो पिय परदेसही गोन
पिय मै हिय मै होड़ है पहले फटी है कोन
शेख सरफुदीन जी का जन्म १२६३ vi० को बताया है
Sunday, March 8, 2009
खामोशी गुफ्तगू है, बे जुबानी है जुबां मेरी
'बका की फिकर कर नादाँ मुसीबत आने वाली है
तिरी बरबादियों के मशवरे है आसमानों में
जरा देख इसको जो कुछ हो रहा है होने वाला है
धरा क्या है भला अहदे कुहन की दस्तानों में
यह खामोशी कहा तक ?लज्जते फरियाद पैदा कर
जमीं पर तू हो और तिरी सदा हो आसमानों में
न समझेगा तो मिट जावेगा ऐ दुनिया के अन्नदाता
तिरी तो दास्ताँ तक भी न होगी दस्तानों में
.....................................
मूल रूप से 'बेचारा जमींदार '
से अनुवादित चोधरी छोटू राम दवारा लिखित
.........साभार ..........
तिरी बरबादियों के मशवरे है आसमानों में
जरा देख इसको जो कुछ हो रहा है होने वाला है
धरा क्या है भला अहदे कुहन की दस्तानों में
यह खामोशी कहा तक ?लज्जते फरियाद पैदा कर
जमीं पर तू हो और तिरी सदा हो आसमानों में
न समझेगा तो मिट जावेगा ऐ दुनिया के अन्नदाता
तिरी तो दास्ताँ तक भी न होगी दस्तानों में
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मूल रूप से 'बेचारा जमींदार '
से अनुवादित चोधरी छोटू राम दवारा लिखित
.........साभार ..........
Wednesday, March 4, 2009
हरियाणा का सूफी एवं उर्दू साहित्य ..........(भाग ५)
जनाब नारायाण दास 'तालिब' पानीपत के महान कवि के रूप में सम्मानित रहे है इनका
जन्म पानीपत में १८ मार्च १९०६ में हुआ आप में काव्य जन्म जात था
''जीने के लिए जीने वालो को जी से गुजरना पड़ता है
मर मर के जीना होता है हर साँस पे मरना होता है ''
............................................................
भारत के परसिद्ध शायर हाली के ही परिवार में ७ जून १९१४ को उर्दू के एक और उच्च कोटि के
साहित्यकार ने जन्म लिया जिनका नाम ख्वाजा अहमद अब्बास था जो बाद में के .ऐ .अब्बास के नाम से फिल्मो और अंतररास्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध हुए
ख्वाजा अहमद अब्बास के नाना शमाल मगरीबी हाली साहब के सपुत्र थे ख्वाजा अब्बास
ने पानीपत के मुस्लिम हाई स्कुल से मिडल तक प्राप्त की बाद में अलीगढ से उच्च शिक्षा
प्राप्त की ख्वाजा साहब की पहली कहानी 'अबाबील ' जो उन्होंने १९३६ में लिखी थी वह अब
तक संसार की विभिन्न भाषाओँ में प्रकाशित हो चुकी है रूस सरकार ने आपको 'लेलिन
शान्ति ' से सम्मानित किया हरियाणा सरकार ने ३१ मार्च १९६८ को आपको सम्मानित
किया .............
जन्म पानीपत में १८ मार्च १९०६ में हुआ आप में काव्य जन्म जात था
''जीने के लिए जीने वालो को जी से गुजरना पड़ता है
मर मर के जीना होता है हर साँस पे मरना होता है ''
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भारत के परसिद्ध शायर हाली के ही परिवार में ७ जून १९१४ को उर्दू के एक और उच्च कोटि के
साहित्यकार ने जन्म लिया जिनका नाम ख्वाजा अहमद अब्बास था जो बाद में के .ऐ .अब्बास के नाम से फिल्मो और अंतररास्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध हुए
ख्वाजा अहमद अब्बास के नाना शमाल मगरीबी हाली साहब के सपुत्र थे ख्वाजा अब्बास
ने पानीपत के मुस्लिम हाई स्कुल से मिडल तक प्राप्त की बाद में अलीगढ से उच्च शिक्षा
प्राप्त की ख्वाजा साहब की पहली कहानी 'अबाबील ' जो उन्होंने १९३६ में लिखी थी वह अब
तक संसार की विभिन्न भाषाओँ में प्रकाशित हो चुकी है रूस सरकार ने आपको 'लेलिन
शान्ति ' से सम्मानित किया हरियाणा सरकार ने ३१ मार्च १९६८ को आपको सम्मानित
किया .............
Monday, March 2, 2009
हरियाणा का सूफी एवं उर्दू साहित्य ...................(भाग ४)
उर्दू साहित्य में हरियाणा के कवियों में अनुपचंद'आफताब ' पानीपती का अपना स्थान है उन्होंने उर्दू काव्य को परम और श्रंगार की संकरी गलियों से निकल कर जीवन जाग्रति और बलिदान के राजपथ पर ला खडा किया हरियाणा सरकार ने उन्हें 'राज्य कवि 'के सम्मानित पदसे आभूषित किया उनका जन्म पानीपत के एक सम्पन परिवार में १८९७ को हुआ और ८ फरवरी १९६८ को उनका देहावसान हो गया
उनका लिखा काव्य .....................
"हम गर्दिशो दोरा को बल अपना दिखा देंगे
मशरिक का सिरा लेकर मगरिब से मिला देंगे
शेरो की तरह हम भी गुराएँगे दुनिया में
सीनों में वतन के जज्बात जगा देंगे
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उनका लिखा काव्य .....................
"हम गर्दिशो दोरा को बल अपना दिखा देंगे
मशरिक का सिरा लेकर मगरिब से मिला देंगे
शेरो की तरह हम भी गुराएँगे दुनिया में
सीनों में वतन के जज्बात जगा देंगे
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